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सोमवार, 11 अक्तूबर 2021

घर में सांप के आने से क्या होता है? What happens to snake come in house?

घर में सांप के आने से क्या होता है? What happens to snake come in house?  



सांप से बचने के लिए उसे भगाने की बजाए लोग अक्सर सांप को  मार देते हैं। जबकि थोड़ी सी समझदारी से हम सांप को मारे बिना उससे बच सकते हैं।

दोस्तों घर में सांप का घुसना या  घर में सांप के  दिखाई देने के  निम्न  कारण  है | 

1 . घर के आसपास झाड़ी या जंगल होना 

दोस्तों सांपो  का बसेरा ज्यादातर झाड़ियों या घने जंगलो में होता है ,ये अपने बिल खुद नहीं बनाते ये चूहे या अन्य किसी जीव  जंतु के बिलो में रहते है | 

ऐसे जगह जहा सांप रहते हो वह पर अगर आपका घर हो तो कभी कभी तो सामना हो ही जायेगा इसमें डरने की बात नहीं है , आपको जैसे अपने प्राण की चिंता है वैसे ही हर जीव जंतु को अपने प्राण की चिंता होती है , आप सांप को मरे नहीं अपितु उसे किसी सांप पकड़ने वाले से कहकर किसी जंगल में या घर से दूर ले जाने को कहे | 

2 . घर में चूहे या मुर्गियों का होना 

दोस्तों  सांप अक्सर खाने की तलाश में घरो में घुस आते है सांप चूहों या मुर्गियों को अपना शिकार ज्यादा बनाते  है 

ऐसे में अगर आपके घर में भी अगर आप मुर्गी पल के रखे हो तो  सावधान हो जाओ , आपके घर भी सांप आ सकता है , सांप मुर्गी के अंडो को भी खाती  है | 

3 . शिवलिंग या शिव जी की मूर्ति का होना 

अक्सर ये देखने को मिलता है की जिस जगह पर शिवलिंग या शिव जी की मूर्ति होती है वहां सांपो का आनाजाना लगा रहता है , और ये स्वाभाविक सी बात है ,क्योंकि सांप भगवान भोलेनाथ के भक्त है , अगर आपको सांपो से दर लगता है तो , घर  शिवलिंग स्थापित न करके घर से थोड़ा दूर में स्थापित करे | 

घर में सांप घुस आए तो क्या करें ? What to do if a snake enters the house ?


>यदि घर में सांप घुस आए तो सभी तरफ मिट्टी तेल या फिनाइल छिड़क दें, उसकी स्मेल सूंघकर सांप खुद-ब-खुद बाहर निकल जाएगा।

>एक लंबा डंडा लेकर सांप के सामने रखें, सांप उसमें चढ़ जाएगा इसके बाद उसे उठाकर बाहर निकालें और घर से दूर ले जाकर छोड़ दें।

>सांप एक ऐसा जीव है जो दीवार/बाउंड्री के किनारे रेंगता है, जिस जगह पर सांप हो उससे थोड़ी दूर पर पाइप से बोरा बांधकर रख दें, सांप जब बोरे में घुस जाए तो बोरा बांधकर दूर जंगल में ले जाकर छोड़ दें।


मंगलवार, 13 अक्तूबर 2020

काठगढ़ महादेव मंदिर – यहां है आधा शिव आधा पार्वती रूप शिवलिंग (अर्धनारीश्वर शिवलिंग) kaathgarh mahadev mandir





 Kathgarh Mahadev History in Hindi : हिमाचल प्रदेश की भूमि को देवभूमि भी कहा जाता है। यहां पर बहुत से आस्था के केंद्र विद्यमान हैं। हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले के इंदौरा उपमंडल में काठगढ़ महादेव का मंदिर स्थित है।  यह विश्व का एकमात्र मंदिर है जहां शिवलिंग ऐसे स्वरुप में विद्यमान हैं जो दो भागों में बंटे हुए हैं अर्थात मां पार्वती और भगवान शिव के दो विभिन्न रूपों को ग्रहों और नक्षत्रों के परिवर्तित होने के अनुसार इनके दोनों भागों के मध्य का अंतर घटता-बढ़ता रहता है। ग्रीष्म ऋतु में यह स्वरूप दो भागों में बंट जाता है और शीत ऋतु में पुन: एक रूप धारण कर लेता है।


शिव पुराण में वर्णित कथा (Story of Shiv Purana)

शिव पुराण की विधेश्वर संहिता के अनुसार पद्म कल्प के प्रारंभ में एक बार ब्रह्मा और विष्णु के मध्य श्रेष्ठता का विवाद उत्पन्न हो गया और दोनों दिव्यास्त्र लेकर युद्ध हेतु उन्मुख हो उठे। यह भयंकर स्थिति देख शिव सहसा वहां आदि अनंत ज्योतिर्मय स्तंभ के रूप में प्रकट हो गए, जिससे दोनों देवताओं के दिव्यास्त्र स्वत: ही शांत हो गए।

ब्रह्मा और विष्णु दोनों उस स्तंभ के आदि-अंत का मूल जानने के लिए जुट गए। विष्णु शुक्र का रूप धरकर पाताल गए, मगर अंत न पा सके। ब्रह्मा आकाश से केतकी का फूल लेकर विष्णु के पास पहुंचे और बोले- ‘मैं स्तंभ का अंत खोज आया हूं, जिसके ऊपर यह केतकी का फूल है।’

ब्रह्मा का यह छल देखकर शंकर वहां प्रकट हो गए और विष्णु ने उनके चरण पकड़ लिए। तब शंकर ने कहा कि आप दोनों समान हैं। यही अग्नि तुल्य स्तंभ, काठगढ़ के रूप में जाना जाने लगा। ईशान संहिता के अनुसार इस शिवलिंग का प्रादुर्भाव फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी की रात्रि को हुआ था।चूंकि शिव का वह दिव्य लिंग शिवरात्रि को प्रगट हुआ था, इसलिए लोक मान्यता है कि काठगढ महादेव शिवलिंग के दो भाग भी चन्द्रमा की कलाओं के साथ करीब आते और दूर होते हैं। शिवरात्रि के  दिन इनका मिलन माना जाता है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

विश्व विजेता सिकंदर ईसा से 326 वर्ष पूर्व जब पंजाब पहुंचा, तो प्रवेश से पूर्व मीरथल नामक गांव में पांच हज़ार सैनिकों को खुले मैदान में विश्राम की सलाह दी। इस स्थान पर उसने देखा कि एक फ़कीर शिवलिंग की पूजा में व्यस्त था।

उसने फ़कीर से कहा- ‘आप मेरे साथ यूनान चलें। मैं आपको दुनिया का हर ऐश्वर्य दूंगा।’ फ़कीर ने सिकंदर की बात को अनसुना करते हुए कहा- ‘आप थोड़ा पीछे हट जाएं और सूर्य का प्रकाश मेरे तक आने दें।’ फ़कीर की इस बात से प्रभावित होकर सिकंदर ने टीले पर काठगढ़ महादेव का मंदिर बनाने के लिए भूमि को समतल करवाया और चारदीवारी बनवाई। इस चारदीवारी के ब्यास नदी की ओर अष्टकोणीय चबूतरे बनवाए, जो आज भी यहां हैं।


Kathgarh Mahadev History in Hindi
रणजीत सिंह ने किया जीर्णोद्धार 

कहते हैं, महाराजा रणजीत सिंह ने जब गद्दी संभाली, तो पूरे राज्य के धार्मिक स्थलों का भ्रमण किया। वह जब काठगढ़ पहुंचे, तो इतना आनंदित हुए कि उन्होंने आदि शिवलिंग के  लिए  शीघ्र ही  सुंदर मंदिर बनवाया और वहां पूजा करके और दूसरे मंदिरो के  लिए निकले । मंदिर के पास ही बने एक कुएं का जल महाराजा रणजीत सिंह को   इतना पसंद था कि वह हर शुभकार्य के लिए यहीं से जल मंगवाते थे।

अर्धनारीश्वर का रूप

दो भागों में विभाजित आदि शिवलिंग का अंतर ग्रहों एवं नक्षत्रों के अनुसार घटता-बढ़ता रहता है और शिवरात्रि पर दोनों का ‘मिलन’ हो जाता है। यह पावन शिवलिंग अष्टकोणीय है तथा काले-भूरे रंग का है। शिव रूप में पूजे जाते शिवलिंग की ऊंचाई 7-8 फुट है जबकि पार्वती के रूप में अराध्य हिस्सा 5-6 फुट ऊंचा है।

दशरथ पुत्र भरत की प्रिय पूजा-स्थली

मान्यता है, त्रेता युग में भगवान राम के भाई भरत जब भी अपने ननिहाल कैकेय देश (कश्मीर) जाते थे, तो काठगढ़ में शिवलिंग की पूजा किया करते थे।

शिवरात्रि के त्यौहार पर प्रत्येक वर्ष यहां पर तीन दिवसीय भारी मेला लगता है। शिव और शक्ति के अर्द्धनारीश्वर स्वरुप श्री संगम के दर्शन से मानव जीवन में आने वाले सभी पारिवारिक और मानसिक दु:खों का अंत हो जाता है। इसके अलावा सावन के महीने में भी काठगढ महादेव का मेला लगता है 

शनिवार, 10 अक्तूबर 2020

छत्तीसगढ़ के इस मंदिर में दूर दूर से आते है संतान प्राप्ति के लिए , chhattisgarh ke is mandir me dur dur se aate hai santan prapti ke liye

छत्तीसगढ़ के इस मंदिर में दूर दूर से आते है  संतान प्राप्ति के लिए , chhattisgarh ke is mandir me dur dur se aate hai santan prapti ke liye  






छत्तीसगढ़ अपनी पुरातात्विक सम्पदा के कारण आज भारत ही नहीं बल्कि विश्व में भी अपनी एक अलग ही पहचान बना चुका है। यहाँ के 15000 गांवों में से 1000 गांव में कही न कही प्राचीन इतिहास के साक्ष्य आज भी विद्ययामान है। जो कि छत्तीसगढ़ के लिए एक गौरव की बात है
इसी प्रकार का प्राकृतिक एवं धार्मिक व पुरातात्विक स्थल रमई पाठ सोरिद खुर्द ग्राम में है विध्यमान है जो विश्व भर में संतान प्राप्ति के लिए विख्यात है

रामायण काल से जुडी है इस स्थान की कहानी :-

माँ रमई पाठ धाम की कहानी रामायण काल से जुडी है यहाँ के पुराने बुजुर्ग लोग बताते है की रामायण काल में जब भगवन राम ने अपने प्रजा के सुख के लिए अपने सुख का त्याग कर माता सीता को वन में छोड़ दिया था तब भगवान श्री राम के अनुज लक्ष्मण जी माता सीता को सोरिद खुर्द के जंगल में छोड़ा था तब यहाँ माता सीता के साथ कोई नहीं था , जब माता सीता को प्यास लगी थी तब लक्ष्मण जी शक्ति बाण चलाकर माता गंगा को माता सीता के सेवा के लिए रमई पाठ में बुलाया रमई पाठ में माता गंगा विद्यमान है यहाँ एक आम का पेड़ है जिसके जड़ से माता गंगा हमेशा प्रवाहित होती रहती है इस जगह से निकलने वाला जल कुछ दुरी पर जाकर लुप्त हो जाती है यह जल कहाँ जाता है किसी को नहीं पता ,माता सीता को ही रमई कहा जाता है यह जगह रामायण कल से माता सीता (रमई ) से जुडी हुई है इस कारण इस स्थान का नाम रमई पाठ पड़ा । बताया जाता है की माता सीता यहाँ से अंतर्ध्यान होकर छत्तीसगढ़ के एक स्थान तुरतुरिया चली गयी थी इसके बारे में मै आपको जानकारी इकठ्ठा कर बताऊंगा

संतान प्राप्ति के लिए जाना जाता है रमई पाठ :-

मनोकामना पूर्ण होने पर चढ़ाया जाने वाला लोहे का संकल 




रमई पाठ में अधिकतर ऐसे दम्पति आते है जिनकी कोई संतान नहीं होता कहते है यहाँ जो मनोकामना मागो पूरी होती है, मनोकामना पूर्ण होने पर यहाँ लोहे का संकल चढ़ाया जाता है या बकरे की बली दी जाती है ,मेरे ख्याल से ये गलत है कोई व्यक्ति अपनी खुशी या अपने जान की सलामति के लिए किसी बेजान की जान लेले ये मेरा हृदय कभी स्वीकार नहीं करता ये लोगो द्वारा अपने स्वार्थ के के लिए बनाया गया नियम है , जो हमारे सात्विक देवी देवता स्वीकार नहीं करते |

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हर साल लगता है मेला :-

यहाँ विस्थापित प्राचीन कालीन मुर्तियो में नरसिंह नाथ, देवी के रूप में हनुमान जी की प्रतिमा, भगवान् शंकर,भगवान् विष्णु, रूद्र भैरव, काना कुँवर व रमई माता की मुर्तिया शामिल है। माना जाता है कि यहाँ की सभी मुर्तिया फिंगेश्वर राज घराने द्वारा स्थापित की गई थी। फिंगेश्वर गोड़ राजाओं की जमीदारी थी। जो अपने राज्य पर आने वाली विपत्तियो, प्राकृतिक बाधाएँ एवं अन्य कारणो से सुरक्षा की दृष्टि से अपने कुल देवी के रूप स्थापना की गई हैं। जहाँ चैत शुक्ल पक्ष पुर्णिमा पर जातरा (मनोकामना यात्रा) चड़ता था।

वन औषधियों से परिपूर्ण:-


सोरिदखुर्द चारो ओर से पहाड़ियो से घिरा हुआ है। ग्राम के उत्तर में मॉ रमई पाठ का स्थान है जिसे माँ रमई डोगरी के नाम से जानते है। यह घने वनो से आच्छादीत, वन औषधियों से परिपूर्ण प्राकृतिक छटा को अपने में समेटे हुए है। पहले यहां जंगली जानवरो की बहुतायत थी लेकिन ब जंगलो के कटने के कारण जंगली जानवर बहुत कम देखने को मिलता है। जहां वन समिति एवं फारेस्ट रिजर्व द्वारा मॉ रमई पाठ की आरक्षित क्षेत्र के विकास के लिए प्रयत्नशील है।

रामायण का साक्ष्य का प्रतिक :-

रामसेतु में उपयोग किया गया रामशीला 



जब भगवान् राम को अपनी पूरी सेना को लेकर लंका जाना था तब लंका मार्ग में समुद्र होने के कारण सेना का लंका पहुंचना बहुत ही मुश्किल था ऐसे में समुद्र में पत्थर से रास्ता बनाया गया जो पानी के उपर तैरता था जिस जगह पर ये पुल बनाया गया था आज वो जगह रामसेतु के नाम से जाना जाता है जो भारत के दक्षिण में रामेश्वरम के नाम से प्रसिद्ध है माँ रमई पाठ धाम में वहां से रामसेतु का पत्थर लाया गया है जिसे एक छोटा सा कुण्ड में रखा गया है यह पत्थर पानी में ऐसे तैरता है जैसे इसका वजन बिलकुल भी न हो पर इसे हाथ में उठाने पर बहुत वजन है

चमत्कारिक एवं अद्भुत शक्ति का प्रतीक:-

आम के पेड़ से निकलती गंगा मैया 


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चमत्कारिक शक्ति यहाँ का आम का पेड़ है। जिसके जड़ से हमेशा स्वच्छ, मीठा व निर्मल जल धारा बहती रहती हैं। पुरे पहाड़ी में कही भी पानी नही मिलेगी लेकिन आम के इस वृक्ष के जड़ से बारहों महिने सत्त जलधारा प्रवाहित होती रहती है जो एक फलॉग की दुरी तक डोगा पथरा से निचे गिरते कुछ दूरी पर जाकर विलुप्त हो जाती है। कहा जाता है कि फिंगेश्वर के राजा महेन्द्र बहादुर के पूर्वज यहा प्रति वर्ष चैत पुर्णिमा पर लाव-लश्कर के साथ देवी के दरबार में जात्रा मनाने आते थे। तब निचे राजा पड़ाव (विश्राम-स्थल) से नंगे पैर चलकर डोगा पथरा की पूजा अर्चना कर गिरती जल से स्नान करने के बाद देवी दर्शन करते थे। यहाँ परंम्परा आज भी कायम हैं। राज परिवार के सदस्यो द्वाराडोगा पथरा से गिरती जल से स्नान पश्चात ही मॉ रमई पाठ के दरबार में पहुंचते है।

आज भी माता सीता का अनुभव :-

यहां आम का वृक्ष है जो सदियों पुराने हाने के बाद भी एक ही जैसा है। इसके साथ-साथ अदृश्य रूप में भी माता की अनुभूति कुछ लोगो ने की है। जिनके प्राण संकट के समय अनुभव होने की बात कही। जिसके कारण यहां लोगो में आस्था व विश्वास बनी

पहुँच मार्ग :-

राजधानी रायपुर से 75 कि.मी. दुर एवं प्रयाग तीर्थ राजिम से पूर्व दिशा में 30 कि. मी., फिंगेश्वर छुरा मार्ग पर फिंगेश्वर से महज 12 कि.मी. व छुरा से 24 कि.मी. दुर सोरिद खुर्द की पहाड़ी पर माँ रमई पाठ देवी का मंदिर है।


मित्रो आपके अमूल्य सुझाव की प्रतीक्षा रहेगी इस धन्यवाद



सोमवार, 15 मई 2017

मौली माता मंदिर फिंगेश्वर जिनके चमत्कार के बारे में शायद ही आपको पता होगा ( the mauli mata tempale fingeshwar)

मौली माता 
गोड़वाना राज फिंगेश्वर नगर के पश्चिम दिशा में विराजित माँ मौली माता का विशाल मन्दिर प्रांगण है | मौली माता फिंगेश्वर राज में सभी वर्ग विशेष की आराध्य देवी है | माता के दर्शन हेतु भक्तगण  माता के दरबार से कभी खली हांथ वापस माहि होते शक्ति स्वरुप माँ मौली देवी क्षेत्र के जन मानस में रची बसी है | पौराणिक मान्यता व पुजारी सोभा राम भंडारी के अनुसार फिंगेश्वर राज का राजा ठाकुर दलगंजन सिंह यात्रा में जा रहे थे तभी अचानक हमलावरों ने आक्रमण कर दिया वाही मौली माता एक बुधिया के रूप में आयी वहा राजा  ठाकुर दलगंजन सिंह हमलावरों से घिर गए थे की अचानक माता जी का साक्षात्कार हुआ ,
माता मौली का मूर्ति रूप 
माता जी की कुछ इशारा पते ही रजा साहब उठ खड़े हुए और हमलावरों के साथ युद्ध किया और विजयी हुए | तब राजा साहब ने माता के पास जाकर प्रणाम कर वापिस महल की ओर आने लगे वहां वृधा का रूप लेकर कड़ी माता भी राजा साहब के पीछे पीछे आने लगी तब रजा साहब को अदृश्य शक्ति का अनुभव हुआ | राजा साहब के निवेदन पर माता जी सांग में बैठ कर फिंगेश्वर राज महल आयी | वह आदर सम्मान पूर्वक वृधा माता जी का पूजा पाठ की लेकिन कुछ गलतियों के कारण वह माता जी और राजा साहब अपने रहने की उचित स्थान बताई | वृधा रूप में मौली माता फिंगेश्वर राज महल के पश्चिम दिशा में तालाब खण्ड में स्थापित  है | तात्कालिन  राजा ठाकुर दलगंजन सिंह द्वारा माता की निवास हेतु महल बनाने की योजना बनाई गई  जिससे माता द्वारा अस्वीकार कर घास फुस की खदर वाली झोपडी में रहने की बाते कही
माता मौली का निवास स्थान जो घास फुस से बनी है (खदर की झोपड़ी )
तब से मौली माता खदर की झोपडी में ही विराजित है | पुजारी शोभा राम भंडारी ने बताया की मौली माता की झोपड़ी में खदर के घास के लिए राजा  साहब ने 150 एकड़   जमींन  रखे है जिसमे अब भी घास लाकर खदर बनाया जाता है पूर्व  में भैसों की बली दी जाती थी वहीँ हजारो की संख्या में धर्म प्रेमी बकरे  की बली दी जाती थी  अब बलि प्रथा बंद कर दी गई  राजा ठाकुर दलगंजन सिंह माता के अनन्य भक्त थे | ग्राम पुरेना में 100 एकड़ की जमीन माता की सेवा में अर्पण किये वाही 500 एकड़ जमीन मौली माता बालाजी पंच मन्दिर महादेव मन्दिर शीतला मंदिर हेतु रखा गया है राजा महेंद्र बहादुर सिंह द्वारा मौली माता पंच मंदिर हेतु ट्रस्ट का निर्माण किया गया है | वर्तमान में सभी मंदिरों की व्यवस्था रख रखाव व पुजारियों की वेतन भत्ता ट्रस्ट द्वारा ग्रहण किया जाता है |

फिंगेश्वर का राज शाही दशहरा 
   
फिंगेश्वर राज का राजशाही दशहरा बस्तर दशहरा की तरह होती है मौली माता की पूजा अर्चना के बाद राजा साहब द्वारा अस्त्र - शस्त्र व पंच मंदिरों की पूजा परिक्रमा के बाद राज शाही परिधान में राज महल के वंशज नगर भ्रमण क्षेत्र वाशियों को दर्शन देते है फिंगेश्वर दशहरा अंचल में विख्यात है जहाँ दूर दराज से आम जनता की भीड़ लगी रहती है | पुलिस प्रशासन की व्यवस्था के बीच राज शाही दशहरा मानते है |

पहुँच मार्ग  

रायपुर से राजिम व राजिम से 17 की. मी. की दुरी पर महासमुंद मार्ग में स्थित है जहाँ सड़क मार्ग से जाया जा सकता है |


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शनिवार, 13 मई 2017

माँ जतमाई धाम की अनसुनी कहानी maa jatmai dham ki ansuni kahani

छत्तीसगढ़  की ख्याति प्राचीन  युग से छत्तीसगढ़ियो  से है किन्तु छत्तीसगढ़ के वन सम्पदा जंगली जानवर और जंगल में रहने बसने  वाले आदिवाशी समाज आज भी सैलानियों की रोमांच और सिहरन के लिए पर्याप्त है छत्तीसगढ़ विपुल वन सम्पदा का प्रदेश है जो पर्यटन के दृष्टिकोण से अपार सम्भावनाये लिए हुए है | क्योंकि यहाँ के घने जंगलो में विभिन्न प्रकार के वन्य प्राणी एवं पशु पक्षी एवं ऊँची -ऊँची पहाड़ियों से गिरती झरने और सबसे बड़ा आकर्षण यहाँ की आदिवाशी संस्कृति है , पर्यटन विकाश की दृष्टि से इस प्रदेश में असीम सम्भावनाये है , छत्तीसगढ़ के जंगलो की खूबसूरती खेतो की हरियाली और यहाँ की विविधता पूर्ण संस्कृति की ओर देश व दुनिया के पर्यटकों का ध्यान आकृष्ट करते है प्रकृति की अनुपम वरदान छुरा वह धरा है जहाँ नैसर्गिक सौंदर्य यत्र - तत्र  बिखरा पड़ा है | सज्जित तिमिर श्रींगार कर रहस्य और रोमांच का अनूठा संसार गढ़ते है | घने वन प्रातर, बहेरा , चार , तेंदू, महुआ , साजा , बीजा, आदि की हरीतिमा वनांचल छुरा के प्राकृतिक सौंदर्य पर न केवल चार चाँद लगते है वरन छुरा आने वाले पर्यटकों को कौतुहल पूर्ण नजरो से निहारते तथा दांतों टेल ऊँगली दबाने को मजबूर कर देता है | सचमुच छुरा में नैसर्गिक सौंदर्य बिखरा पड़ा है शेर ,भालू,चिता,सियार,बन्दर,नील गाय आदि की उपस्तिथि रोमांचित कर देता है, प्राकृतिक वरदानो से भरा क्षेत्र की गोद में यहाँ की संस्कृति रची बसी है ,जहाँ क्षेत्र के चारो तरफ पहाडियों में जतमई ,घटारानी , रमईपाठ , टेंग्नाही ,जटियाई ,खोप्लिपाट ,रानीमाँ जैसी देवियों देवियों का निवाश स्थान है , जहाँ क्षेत्र के जनसमुदायों की  आस्था  एवं विश्वाश जुडी है इन्ही में जतमईगढ़ कुछ साल पहले जहाँ बिया बान जंगल था | अब वह तीर्थ स्थल का रूप ले चूका है |
वहां के कल - कल करते झरने और पहाड़ियों से घिरी सुरम्य वादियाँ आगतुक द्रोलानियों को लुभा रही है | आलम यह है की जतमईगढ़ स्थित जतमई माता की महिमा विदेशो में भी पहुँच गयी है | जतमई के ग्रामीण बगैर किसी  सरकारी सहायता के एक करोड़ की लगत से मन्दिर बना रहे है | हालांकि ग्रामीण इसे जतमई माता की कृपा मानते है


दान से बन रहा एक करोड़ का मन्दिर  -   
जतमई धाम में दान दाताओं का सहयोग से एक करोड़ की लागत से भव्य मन्दिर का निर्माण कराया गया | वाही लगभग 95 लाख की  महाकाल मन्दिर का निर्माण किया जा रहा है | पूर्णता की ओर उत्कल शैली में निर्मित भवन दर्शन्य है | दक्षिण मुखी मन्दिर में अलंकृत कलाकृतियाँ रमन्य है जो मन्दिर की सुन्दरता में चार चाँद लगा देती है | मन्दिर के  गर्भ गृह में माँ जतमई विराजित है जहाँ पर्वतों की खोह से कल - कल करती        जल धरा पठारों व चट्टानों से टकराती हुई माँ जतमई की चरण पखारते हुए झरने का रूप ले 200 फिट गहरे कुंड में गिरती है जहाँ से पश्चिम में निर्मित विशाल तौरेंगा जलाशय में समाहित होता है | जिससे क्षेत्र के हजारो एकड़ जमींन  की सिचाई इस विशाल जलाशय से  होती  है | जो क्षेत्र के लिए माता का अनुपम वरदान प्राप्त है | अतः क्षेत्र वाशी माता को अन्नपूर्णा के रूप में मानते है 

आदिशक्ति  माँ जतमई जगदम्बा है - 

छत्तीसगढ़ की बोली नमो का उच्चारण अब अप्भ्रंश रूप में ज्यादातर देखने को मिलता है | माँ जतमईगढ़ धाम में माता जत्मै के नाम से प्रसिद्ध है | छत्तीसगढ़ शब्द जतमई का हिंदी शुद्ध रूप जत - मई यानि जत माना जगत से और मई अर्थात जगत माँ जगदम्बा है आदिशक्ति माँ जतमई साक्षात् ज्योतिमई जगदम्बा है जो यहाँ जतमई के नाम से विश्वविख्यात है |    

अदृश्य सत्ता ने सात्विकता का भाव जगाया -     




1995 के पहले बियाबान जंगल जहाँ रास्ते भी नहीं थे , एक पुजारी वहां तपश्या करता था उसी समय से वहां आस - पास से लोगो का आना जाना शुरू हुआ | एक रोज तौरेंगा के सरपंच शिवदयाल ध्रुव माता के दरबार में पहुंचे , माता के दर्शन कर लौटते समय उन्हें आभास हुआ की माँ जतमई के अदभुत व अदृश्य शक्ति  उसके साथ है , वे घर पहुँच कर कुछ देर एकांत में बैठे माता जी ने कुछ छण के लिए प्रकाश के रूप में उन्हें दर्शन दिए | एवं उनके अन्दर सात्विकता का भाव जागते रहे , जिससे उसके मन में बलि प्रथा बंद करवाकर सात्विक पूजा व ज्योति कलश प्रज्वलित करने का भाव जागृत हुआ | उन्होंने माता जत्मई   से जो अनुभूति प्राप्त हुआ था उसे अंचल के बुजुर्गो को बताया तब माता जतमई की प्रेरणा से सभी ने अपना विचार कर यज्ञ मूर्ति श्री श्री १००८ संत सिया श्री भुवनेश्वरी शरण व्याश जी महाराज व पूज्य महात्मा श्री नारायण भगत के सानिध्य में सन  1997 में पहली बार ज्योति प्रज्वलित किये| एवं ब्राह्मणों के माध्यम से सारे कार्य संपादन किये गए तब से यहाँ बलि प्रथा बंद कर सात्विक पूजा चली आ रही है |    

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