ठिठुरती रात का सन्नाटा | Hindi story on street dogs

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 ठिठुरती रात का सन्नाटा



दिसंबर की ठंडी रात थी। पूरा शहर रज़ाईयों में दुबका हुआ था। सड़कों पर सन्नाटा पसरा था और कोहरे ने चारों ओर एक धुंधली चादर बिछा दी थी। स्ट्रीट लाइट की पीली रोशनी में बर्फ़ीली हवा तीर की तरह चुभ रही थी।

रवि, जो पास के मोहल्ले में रहता था, काम से लौट रहा था। रास्ते में उसने देखा — एक टूटी-सी झोपड़ी के पास तीन छोटे-छोटे पिल्ले ठंड से काँप रहे थे। उनकी माँ पास ही पड़ी थी, शरीर जकड़ा हुआ, साँसें धीमी। शायद वह दिनभर कुछ खाए बिना अपने बच्चों को गर्म रखने की कोशिश में थक चुकी थी।

रवि के कदम अपने आप रुक गए। उसने झुककर देखा — पिल्लों की आँखों में डर और उम्मीद दोनों थे। वो बार-बार अपनी माँ के पास सिमटने की कोशिश कर रहे थे, मगर ठंडी हवा हर बार उन्हें दूर धकेल देती थी।

रवि ने अपने जैकेट की जेब से हाथ निकाला — उँगलियाँ सुन्न थीं। उसने जेब से बिस्कुट निकाले और धीरे-धीरे पिल्लों के आगे रख दिए। भूख से तड़पते वे काँपते-काँपते बिस्कुट चाटने लगे। रवि का दिल पसीज गया।

“काश इनके लिए कुछ कर पाता…” वह बुदबुदाया।

वह घर पहुँचा, लेकिन उन मासूम चेहरों की तस्वीर उसके दिमाग़ से निकल नहीं रही थी। उसके कमरे में हीटर चल रहा था, गर्म चाय की भाप उठ रही थी, पर बाहर की वो ठंड और कुत्तों की हालत उसके भीतर बेचैनी भर रही थी।

रातभर वह सो नहीं पाया।

अगली सुबह रवि ने एक पुराना कंबल, कुछ रोटी और दूध लिया और फिर उसी जगह पहुँचा। वहाँ अब सिर्फ दो पिल्ले थे — तीसरा शायद ठंड की भेंट चढ़ चुका था। माँ भी अब निढाल पड़ी थी, शरीर ठंड से अकड़ा हुआ। रवि की आँखें भर आईं।

उसने झोपड़ी के पास लकड़ियाँ इकट्ठी कीं और आग जलाई। दोनों पिल्ले धीरे-धीरे उसके पास आ गए। रवि ने उन्हें अपने कंबल में लपेट लिया। उनकी काँपती देह धीरे-धीरे शांत होने लगी।

रवि ने तय कर लिया — वो अब इन्हें ऐसे नहीं छोड़ेगा।

उसने अपने घर के आँगन में एक पुराना बक्सा रखा, उसमें कपड़े और घास बिछाई। पिल्लों को वहाँ ले आया। शुरू में वे डर रहे थे, लेकिन धीरे-धीरे उन्हें गर्मी और सुरक्षा का एहसास हुआ।

उस दिन से रवि का घर दो छोटे पिल्लों का भी घर बन गया। सुबह वह उन्हें दूध देता, शाम को उनके साथ खेलता। और हर ठंडी रात को वह सोचता — “अगर हर कोई एक आवारा जानवर को थोड़ा-सा आसरा दे दे, तो कितनी ज़िंदगियाँ बच सकती हैं।”

सर्दियों में जब लोग ऊनी कपड़ों में लिपट जाते हैं, तो शहर के कोनों में ये मूक जीव ठंड, भूख और डर से जूझते हैं। उनके पास न घर है, न रज़ाई, न चाय की गर्मी। वे बस किसी कोने में दुबक कर आसमान से उम्मीद करते हैं — शायद कोई इंसान उन्हें देख ले, कोई दिल पिघल जाए।

रवि की यह छोटी-सी पहल एक सीख बन गई — “दयालुता हमेशा बड़े कामों में नहीं, छोटे कर्मों में छिपी होती है।”

उसने मोहल्ले के बच्चों को बुलाया और उन्हें समझाया कि ठंड में अगर कोई आवारा कुत्ता दिखे, तो उसे पत्थर मत मारो, उसे कुछ खाने को दे दो, उसके लिए पुराने कपड़ों से एक छोटा-सा बिस्तर बना दो।

धीरे-धीरे पूरा मोहल्ला बदलने लगा। अब हर गली के कोने में किसी ने एक डिब्बा, बोरों या पुराने कपड़ों से “कुत्तों का घर” बना दिया था। बच्चे अब उनके दोस्त बन गए थे।

सर्द रातें अब भी आती थीं, पर अब वो उतनी क्रूर नहीं रहीं।

रवि जब हर सुबह अपने घर से निकलता, तो दोनों पिल्ले दौड़कर उसके पैर चाटते। उनके चेहरे पर अब डर नहीं, अपनापन था।

वह मुस्कुरा देता — “कम से कम कुछ जानें अब ठंड से नहीं मरेंगी।”


संदेश:
यह कहानी सिर्फ रवि की नहीं है, हम सबकी हो सकती है। जब भी सर्दी की ठिठुरन महसूस हो, याद कीजिए — कोई छोटा-सा जीव शायद उसी वक्त काँप रहा हो। एक पुराना कंबल, थोड़ा खाना, या एक कोना भी उसके लिए जीवनदान हो सकता है।


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